देश की आर्थिक राजधानी मुंबई (Mumbai) के साथ-साथ पूरे महाराष्ट्र (Maharashtra) की राजनीति सदैव चर्चा में रही है। 1 मई, 1960 को राज्य के रूप सामने आए महाराष्ट्र ने पिछले वर्ष अपनी स्थापना के 60 वर्ष पूरे किए। यह वर्ष राज्य ने 61 वर्ष में प्रवेश किया है। देश को सर्वाधिक राजस्व धनराशि देने वाले महाराष्ट्र की राजनीतिक यात्रा पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होगा कि इस राज्य में कांग्रेस (Congress) ने सबसे ज्यादा समय तक राज्य किया है।
मराठी माणुस तथा मराठी अस्मिता का ढोल पीटने वाली शिवसेना (shiv sena) के कर्ताधर्ता शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे (uddhav thackeray) के नेतृत्व में सत्तारूढ़ सरकार में शरद पवार (sharad pawar) की राकांपा (ncp) तथा कांग्रेस भी शामिल है। शिवेसना का मुख्यमंत्री बनाने के लिए शिवसेना क्या-क्या किया यह सभी को मालूम है। अपने सिद्धांतों का गला घोंटकर महाविकास आघाडी (mva) के बैनर तले राज्य में भारी राजननीतिक गतिरोध के बाद सरकार तो बन गई लेकिन तीन दिलों की खिचड़ी सरकार को कोरोना के कुछ इस कदर जकड़ा कि राज्य का पूरा-पूरा विकास ही ठप्प पड़ रहा। कोरोना के कारण हर दिन मरने वालों का आकड़ा बढ़ता जा रहा है और सरकार अपने काम की प्रशंसा करते नहीं थक रही। अगर 1960 के वक्त राज्य की राजनीति पर दृष्टि दौड़ाई जाए तो उस वक्त महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस का एकछत्र राज्य था।
वर्ष 1960-1977 की कालावधि में राज्य की राजनीति में कांग्रेस मतदाताओं की सबसे पसंदीदा राजनीतिक दल रहा है, उस वक्त कांग्रेस इतनी ताकतवर पार्टी थी, जब उसे 288 विधानसभा सीटों में से अकेले 200 से ज्यादा सीटें प्राप्त होती थी। कांग्रेस के झंझावात के सामने किसी अन्य राजनीतिक दल का खड़ा होना संभव नहीं था।
महाराष्ट्र राज्य की अब तक यात्रा में इस राज्य की सरजमीं ने अनेक आंदोलन देखें हैं। छह दशकों की लंबी यात्रा में राज्य में अनेक सामाजिक तथा राजनीतिक बदलाव भी हुए। राज्य के पहले राजनीतिक पड़ाव में यशवंत राव चव्हाण (yashwant rao chavhan) ने कांग्रेस के लिए मजबूत सामाजिक आधार तैयार किया।
ग्रामीण क्षेत्र की पंचायत राज संस्था, सरकारी हलचलें, कृषि तथा मराठा तथा ओबीसी जाति की आघाडी ही उसका आधार था। लेकिन 1977 से कांग्रेस का यह आधार टूटना शुरु हो गया। इसके साथ ही कांग्रेस का प्रभाव भी कम होना शुरु हो गया था। 1980-85, 85-90 तथा 95 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 180, 161, 141 तथा 81 सीटें मिली थीं। 2001 में शहरी क्षेत्र मंं 38 प्रतिशत तो 2011 में 42 प्रतिशत लोग रहते थे। आर्थिक विकास के कारण दूसरे राज्य के लोगों का जमावाड़ा होने से स्थिति और ज्यादा भयावह हो गई है। 1978 से 1995 के कालखंड में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व धीरे-धीरे कम होता चला गया। इसी के साथ वाम पक्षों का प्रभाव नहीं के बराबर हो गया और हिंदुत्ववादी दलों का प्रभाव बढ़ने लगा, उसकी संकेत 1995 में कांग्रेस का पराभव हुआ और शिवसेना-भाजपा गठबंधन (bjp-shiv sena alliance) सरकार के सत्ता में आने के बाद हुआ। तीसरे चरण यानि 1996 से 2014 इस कालावधि में कांग्रेस में फूट पड़ी। यह दौर वह था, जब शिवसेना में भी दरार पड़ चुकी थी। इस कालावधि में राज्य में जिन चार दलों का वर्चस्व था, उनमें कांग्रेस, राकांपा, शिवसेना तथा भाजपा का समावेश है।
राज्य की राजनीति का चौथा चरण 2014 से ही शुरू हो गया, इस वर्ष पहली बार राज्य में देवेंद्र फडणवीस (devendra fadnavis) के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। देवेंद्र फडणवीस ऐसे पहले नेता हैं, जिन्हें महाराष्ट्र भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। इससे पहले राज्य में जब गैर कांग्रेसी सरकार की जगह भगवाई राजनीति वाली सरकार बनी थी तो उसके मुखिया बने थे, शिवसेना के वरिष्ठ नेता मनोहर जोशी (murli manohar joshi) तो बाद में लोकसभा अध्यक्ष भी बने। वर्तमान में राज्य में तीन दलों की खिचड़ी सरकार अस्तित्व में है। इस सरकार के मुखिया हैं, शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे। कहने को तो उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री हैं, लेकिन यह सरकार मुख्यमंत्री के इशारे पर नहीं, बल्कि किसी और के इशारे पर चल रही है।
राज्य की राजनीति आने वाले समय में किस राह पर जाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना तो तय है कि भाजपा-शिवसेना के बीच राजनीतिक टकराव का सबसे ज्यादा फायदा शरद पवार की पार्टी राकांपा को होगा। सच तो यह है कि आज की तारीख में राज्य में एक भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं है, जिसे अपने बूते पर बहुमत मिल सके।
अगर अब तक की स्थिति पर विचार किया जाए तो 1995 में शिवसेना-भाजपा को बहुमत मिला तो 1999 में किसी भी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला था। 2004 तथा 2009 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन को बहुमत मिला था, जबकि 2014 तथा 2019 में शिवेसना-भाजपा गठबंधन को बहुमत मिला था।
जैसे-जैसे कांग्रेस कमजोर होती चली गई, वैसे-वैसे राज्य में भाजपा की ताकत बढ़ती चली गई। कांग्रेस के साथ रहकर शरद पवार की पार्टी राकांपा ने सत्ता का सुख जरूर भोगा लेकिन कभी नंबर वन पर नहीं आ सकी। भाजपा-शिवसेना में दरार का दायरा बढ़ाकर राज्य में महाविकास आघाड़ी के बैनर तले शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार के गठन में अहम भूमिका अदा करन वाले शरद पवार को इस बात का मलाल है कि अब तक उनकी पार्टी का एक भी मुख्यमंत्री नहीं बन सका है। बीच में इस बात को लेकर चर्चाएं खूब चली थीं कि शरद पवार अपनी सुपुत्री तथा बारामती से राकांपा सांसद सुप्रिया सुले (supriya sule) को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, लेकिन शरद पवार के भतीजे तथा वर्तमान सरकार में उप मुख्यमंत्री पद पर तैनात अजित पवार (ajit pawar) खुद को राज्य के भावी मुख्यमंत्री के रूप में देख रहे हैं। राज्य की राजनीति का अच्छा खासा ज्ञान रखने वाले अजित पवार अपनी चचेरी बहन सुप्रिया सुले के स्नेह बहुत रखते हैं, लेकिन जब बात मुख्यमंत्री पद की आती है, तब वे किसी भी तरह का समझौता नहीं करते।
अजित पवार का राजनीतिक दबदबा इतना ज्यादा है कि बगावत करने के बाद भी उन्हें आज भी पार्टी में वही सम्मान, पद प्रतिष्ठा प्राप्त है, जो पहले हुआ करती थी। आज सरकार में उप मुख्यमंत्री की भूमिका निभा रहे अजित पवार के तेवर यही बताते हैं कि वे स्वयं को मुख्यमंत्री से कम नहीं समझते। कई बार तो यह बात भी सामने आयी है कि उन्होंने मुख्यमंत्री को बताए बगैर ही मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और बहुत से निर्देश जारी कर दिए। अजित पवार के तेवर के कारण सरकार पर राकांपा का कब्जा जरा ज्यादा ही दिखायी देता है। भाजपा से नाता तोड़कर अपने वैचारिक विरोध वाली कांग्रेस तथा राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनाने वाली शिवसेना को आज भले ही इस बात को लेकर बेहद आनंद हो कि उसने अपने इस बयान पर मोहर लगा दी कि राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी शिवसेना को ही मिलेगी, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए शिवसेना ने जिस तरह का सियासी खेल खेला है, वह उसके लिए ही खतरनाक साबित होगा।
कुल मिलाकर राज्य की राजनीति में अब तक छह दशक में जिन दो दलों की ताकत सबसे ज्यादा बढ़ी है, उसमें कांग्रेस के बाद भाजपा का ही नाम है। आने वाले समय में कांग्रेस तथा शिवसेना का राजनीतिक वर्चस्व कम होगा तथा राकांपा तथा भाजपा का वर्चस्व बढ़ेगा, यह भी संभव है राज्य में अगला राजनीतिक गठबंधन भाजपा-राकांपा के रूप में सामने आ जाए और अगर इसमें मनसे भी शामिल हो गई तो कांग्रेस तथा शिवसेना की हालल सबसे ज्यादा खराब होगी। देवेंद्र-अजित-राज का राजनीतिक संगम कांग्रेस-शिवसेना के लिए बहुत बड़ा संकट बन सकता है, ऐसे में शिवसेना को अपनी भावी राजनीति पर अभी से ही चिंतन शुरु करना होगा, क्योंकि जब तक शरद पवार हैं, जब तक उद्धव ठाकरे की थोड़ी बहुत पूछ परख है, लेकिन शरद पवार के बाद अजित पवार के राज में उद्धव ठाकरे का क्या होगा। इस पर अभी से ही चिंतन शुरु करना होगा, अगर समय रहते शिवसेना नहीं चेती तो वह स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाडी चला लेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके अपने विचार हैं।)